गुलाब पर कविता

थी इक लड़की गुलाब सी जिस पर सब रंग फबते थे
उस की आमद थी ख़ुशबूएँ उस से आँगन महकते थे

उसकी डुबकियों से ये समंदर गुलाब जल से लगते थे
उसकी तासीर से ये झरने हयायी गुलाबी दहकते थे

उसकी आँखें किसी पुरानी मय की प्याली से कम नहीं
उसकी नज़रों की तपिश से भी बडे़ पहाड़ पिघलते थे

तीखी नाक पर उसकी चमकता स्याह काला जरकन
उसकी बालियों में गिरफ़्तार दिल करवटें बदलते थे

क़िताबें सँभालती हैं फूल जैसे नर्म हथेली पर ता-उम्र
उसके ख़्वाब भी उसकी नाज़ुक पलकों पर लरज़ते थे

नाज़ुक मिजाज़ थी वो किसी कमसिन गुलाब की तरह
वो हंसती तो वक्त ठहरता वो बोलती तो इत्र बरसते थे

मधुवन में बहक उठती हैं जैसे पथरा चुकी कामनाएं
उसकी सोहबत में भी क़ुर्बत से भी अरमान बहकते थे

हवाएँ छेड़ती थीं अक्सर उसे आते-जाते हुए रास्तों पर
तमाम मौलाई काँटे उसकी हिफ़ाज़त को भटकते थे

गुलाब को थी ये हिदायतें कि महक जाना जहां जाना
उसमें भी थी ये क़ुव्वतें उससे जमीं-आसमां महकते थे

उसने ना कभी मांगा गुलाब ना ही मुझे दिया तोहफ़े में
फूल उसे भी मेरी तरह अज़ीज़ डालियों पे थिरकते थे !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

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