यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उस से मगर, जाते जाते उस का वो मुड़ कर दोबारा देखना।
कुछ तो तिरे मौसम ही मुझे रास कम आए, और कुछ मिरी मिट्टी में बग़ावत भी बहुत थी।
वो मुझ को छोड़ के जिस आदमी के पास गया,
बराबरी का भी होता तो सब्र आ जाता।
दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं, देखना है खींचता है मुझ पे पहला तीर कौन।
अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं, अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई।
अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है, जाग उठती हैं अजब ख़्वाहिशें अंगड़ाई की।
वो तो ख़ुश-बू है हवाओं में बिखर जाएगा,
मसअला फूल का है फूल किधर जाएगा।
हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानाँ, दो घड़ी की चाहत में लड़कियाँ नहीं खुलतीं
।
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