Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी/रूह गज़ल)

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Rooh Shayari (रूह शायरी 2 लाइन)

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
ठिठक गयी पाकिज़ा रूह, बदलते चेहरे देख के, 
ये कौन से हुनर हैं, जो तुमने मुझे नहीं सिखाये।

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
वो तलबगार लगातार मेरे जिस्म का रहा, 
मैं रूह में उतर जाने को ही आमदा रही।

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
क़हक़हे आज भी गूंजते हैं होंठों पे,
फ़क़त रूह कराहती है 'ताबीर'।

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
गर बख्श भी दे ख़ुदा, मेरी किसी दुआ के बदले में, उसे 'ताबीर',
तलबगार, उसके जिस्म की तो नहीं, मुझे तो वो रूह तक चाहिए।

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
मिरे इश्क़ का नशा 'ताबीर', जुदाई के बाद भी, उसमें तारी रहेगा,
रूह तक उतर चुकीं थी उसकी, वो उम्र भर, इस खुमारी में रहेगा।

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
जिस्म जदोजह्द में रहता है, दो रोटी की,
रूह जिद पे अड़ी है, मुझे कलम चाहिये।

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
रस्म-ओ-रिवाज भी नहीं, ना हक़्क़-ए-महर के हुक़ूक़ 'ताबीर',
रूह उसको मान बैठी है ख़ुदा, इश्क़-ओ-मोहब्बत की खातिर।

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
रूह के जर्रे-जर्रे में समाया है तु किस क़दर,
फ़कत दूर है तो, मेरे इन हाथों की लकीरों से।

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
हर हथकंडा तुझे भुलाने का नाकाम है 'ताबीर',
तू जिस्म की तह से बहुत दूर कहीं रूह में है।

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
वो मिलता है, तो लगता है, कभी बिछड़ा ही नहीं था,
वो एक हिस्सा है, मेरी ही रुह का, मुझमें ही रहता है।

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
मन, बुद्धि और विचारों की कशमकश ने,
इस बदन को रुह से फकत छीन लिया है।

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
सुनो यहां हर तरफ कोई ना कोई, किसी ना किसी का तलबगार है,
जिस्म किसी का, रूह किसी की, हर शक्स यहां अन्दर से बीमार है।

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
है कोई इस जहां में 'ताबीर', जो जिस्म से रूह निकाल दे,
मुझमें उतर जाये खुद, खामोश समन्दर को उछाल दे।

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
नयनो का नयनो से आलिंगन था आगाज़,
रूह से रूह तक का सफ़र अभी बाकी है।

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
इबादत कहो या इश्क़ की शिद्दत, रूह अयाँ हो रही है,
सहर सा मौसम रहता है मेरे अन्दर, रात निहाँ हो रही है।

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
उसकी नफरत में मिलावट है, फक़त मोहब्बत की,
रूह इस क़दर तर है, महक ए इश्क़ के खुमार में।

Rooh Shayari (रूह शायरी 4 लाइन)

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
दर्द की करवटों का, पयाम अभी बाकी है,
आसूंओं में शिकवो का, कोहराम बाकी है।

तु ही तु उतरा है, इस जिस्म की राहों में,
रूह पे भी इश्क़ का निशान अभी बाकी है।

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
लौट कर आया जो, वो घायल परिन्दा बता रहा था,
ज़ख़्मी ज़िस्म ही नहीं, छलनी रूह भी दिखा रहा था।

किस क़दर बे-आबरू है, बे-गैरत हैं, ग़ैर की बस्तियां,
वो एक एक याद को जैसे, नोच-नोच के जला रहा था।

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
उसके लफ्ज़ ओ लहजे को, वाजिब वजह किसने माना,
रूह जख्मी है जिस्म पे मगर खून के दाग़ कहां से लाता।

वो बा-इज्जत बरी हुआ, इश्क़ की अदालत से सितमगर,
उसके गुनाहों का 'ताबीर', सुबुत ए खंजर कहां से लाता।

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
मैने उसे गवां दिया था, फकत इद्दत की तरह,
वो लौट आया है 'ताबीर', यादों में शिद्दत की तरह।

जिस्म गर दूर भी हो तो, कुछ रूह साथ धड़कती हैं, 
ख़ुद से ख़ुद के वस्ल में, इक लम्हा इक मुद्दत की तरह।

Rooh Shayari | 30+ Rooh Status In Hindi (रूह शायरी / रूह गज़ल )
है तुम्हें अब एतराज़, कि उसकी क्यूं हुँ,
हूँ हमसफ़र तेरी, फिर इश्क़ की क्यूं हुँ।

गर उतरे हो रूह में, तो मशवरा दो 'ताबीर'
वरना मत पुछो, मैं ऐसी क्यूँ हूँ, मैं वैसी क्यूँ हूँ।

Rooh Shayari (रूह गज़ल)

सुनो, मैं एक किताब लिखुंगी, इश्क़ बेबाक़ लिखुंगी,
हर पहर लिखुंगी उसमें, खुद को बे-हिसाब लिखुंगी।

मैं अपनी जिन्दगी का, सफ़र ए इश्क़ लिखुंगी,
लेकिन हर किस्से में "ताबीर" तेरा जिक्र लिखुंगी।

लिखुंगी एक नये दौर का, फलसफ़ा ए मोहब्बत, 
मैं तेरे-मेरे नयन से रूह तक का, सफ़र लिखुंगी।

हर एक किस्सा बयां होगा, हंसी से अश्क़ तलक, 
कलम मेरी, इश्क़ भी मेरा, अपनी तपिश लिखुंगी, 

खुद को मुजरिम, तुझको गुनाह ए ख़लिश लिखुंगी।।

सफ़र ए आखिरी "ताबीर", एक जिन्दगी गुजार कर।
हम चल दिए हैं आज़, तमाम खुशामदें नकार कर।

ज़ख़्मी ज़िस्म है फिर भी, रूह बे-निशान ओ बे-दर्द,
रूह फारिग हूई है कितना, बोझ ए जिस्म उतार कर।

निखरने पे सवाल था कल तक, यहां हर शख़्स को,
आज़ अर्थी उठायेंगे ये मेरी, पूरा साज़ो-सिंगार कर।

तमाम उम्र चुभती रही, मेरी हस्ती, जिन आंखो को,
झूठे अश्क़ गिरायेंगे आज़, रस्मो-रिवाज़ करार कर।

कल तक उठ रहे थे मुझ पर, जो हाथ, पत्थर उठाये,
वो फूल चढ़ायेगें कल से, मुराद मांग-मांग मज़ार पर।

सुनो, तजुर्बा ख़ुद ही, उधड़े दामने-लालाज़ार ने कहा, 
ये धागा ज़ख्म सी रहा है, नये-नये जख़्म उभार कर।

मिट्टी के पुतले हो, मिट्टी ही है आखिरी मंजिल तुम्हारी,  
ज़रा तो ख़ुद-ब-ख़ुद जी लो, ये फ़र्ज़ी नक़ाब उतार कर।।

आँखे चार करने की, गुफ़्तगू ओ जान करने की,
सूकुं छीन लेने की, इश्क़- ए- एहसान करने की,

तेरी 'ख़्वाहिश' जायज़ है, वक़्त आसान करने की,
मुझमें उतर जाने की, मेरा नुकसान करने की।।

रूह खींच कर जिस्म से मुझे बे-जान करने की,
नाकाम कोशिश, दो जिस्म एक जान करने की,
ख़ुदा ही इश्क़ है "ताबीर" ये पहचान करने की,
मुझमें उतर जाने की, मेरा नुकसान करने की।।

तेरी 'ख़्वाहिश' जायज़ है, खुद को जवान करने की, 
रूह-जमीं पे उतरने की, अपना मकान करने की,
तुझको खुदा कहने की, मुझे रमजान करने की, 
मुझमें उतर जाने की, मेरा नुकसान करने की।।  

तेरी 'ख़्वाहिश' जायज़ है, वक़्त आसान करने की,
मुझमें उतर जाने की, मेरा नुकसान करने की।।

मैं तन्हा बैठ कर तुमको, अकसर याद करती हुँ,
अन्धेरे दिल को यादों के चिराग से आबाद करती हुँ।

एक तू है कि अब पलट कर देखता भी नहीं जानाँ,
एक मैं हुँ कि आज़ भी इश्क़ पे जां निसार करती हुँ।

अद्ना सा लगने लगा है हर गम जिन्दगी का अब, 
अपनी रूह के छालों को जब मैं लगातार तकती हुँ।

नवी भी रुठ रहा है अब इबादतों से मेरी "ताबीर"
तस्बीह के दानों में तुमको ख़ुदा के साथ पढ़ती हुँ।

जख्मी रूह की फिर करवट बदल के देखते हैं,
लहू उठाओ, कोरे कागजों पे चीख़ के देखते हैं।

इश्क़ हो गया है गोया, कलम से, अपनी हमको,
दर्द ए इश्क़ की गली, फिर से गुज़र के देखते हैं।

उसे ख़ुदा लिखेंगें हम, एक दुआ कुबुल लिखेंगें, 
नाकाम इश्क़ के हाथों, फिर से उजड़ के देखते है।

पीछे छोड़ आये थे जो, दहकती आग उस पहर,
दबी चिंगारी को हवा, फिर से झल के देखते हैं। 

फिर से गुजरते हैं एक बार आगाज़ से अंजाम तक, 
महबूब लिखा जहां-जहां, गुनाह लिख के देखते हैं।

जुदाई तो मुकद्दर ठहरी, राह- ए- इश्क़ में 'ताबीर' 
कागजों पर ही सही, उसे ख़ुद का होते देखते हैं।

कभी हंसी आती है ख़ुद पर, कभी इस ज़िंदगी पे आती है।
फकत एक खेल है जीवन, जहां मोह- माया चली आती है।

रूह बंधी धड़कनों के धागे से, मिट्टी से तराशी देह 'ताबीर',
जरा सा धागा जो खींच दे ख़ुदा, मिट्टी में ही मिल जाती है।

किस चीज़ पे अधिकार हमें, किस चीज़ के दावेदार हैं हम,
किराये के घर से ये चार दिन, फ़िर रूह फना हो जाती है।

साथ जाता है हमारे कुछ, या नहीं जाता है साथ कुछ भी,
दौलत, शोहरत, इज़्ज़त, अना, ये सब तो यहीं रह जाती है।

ज़िंदगी जी तो रहें हैं ऐसे, साथ बांध कर, बरसों का सामान,
कि ख़ुद ख़ुदा कह गया हो, अभी तुमको मौत नहीं आती है।

लोग पूछते हैं मुझसे भी अक्सर, कुछ सोचा है तुमने आगे,
कभी नज़र जाती है उन पर, तो कभी शमशान पर जाती है।

काश आसूंओं के साथ ये प्रेम भी बह जाए,
मैं ख़ाली हो जाऊं कुछ भी शेष ना रह जाए।

विरह की वेदना बे-दर्द बहुत छलनी करती है,
महज़ प्रतीक्षा ही नहीं ये उपेक्षा भी सहती है।

लफ़्ज़ अधूरे लगते हैं अदने से अल्फाज़ हैं,
इस पीड़ा को बयां करना जो मुझमें रहती है।

व्याकुल बदन हो तो नींद आराम दे जाती है,
रूह बैचैन का क्या करूं ये सो नहीं पाती है ।

सांस जो निकले मुझसे तो बाहर ही रह जाए,
बदन में रिसते नासूर को आराम तो आ जाए।

काश आसूंओं के साथ ये प्रेम भी बह जाए,
मैं ख़ाली हो जाऊं कुछ भी शेष ना रह जाए।

विरह की वेदना बे-दर्द बहुत छलनी करती है,
महज़ प्रतीक्षा ही नहीं ये उपेक्षा भी सहती है।

लफ़्ज़ अधूरे लगते हैं अदने से अल्फाज़ हैं,
इस पीड़ा को बयां करना जो मुझमें रहती है।

व्याकुल बदन हो तो नींद आराम दे जाती है,
रूह बैचैन का क्या करूं ये सो नहीं पाती है ।

सांस जो निकले मुझसे तो बाहर ही रह जाए,
बदन में रिसते नासूर को आराम तो आ जाए।

दिल ही दिल में हम दीदार-ए-यार में हैं।
चले आओ कि ये निगाहें इंतज़ार में हैं।
           तलब सर पटकती है बेताब ओ बे-चैन,
           जैसे जिंदगी की कश्ती मझधार में है।
गुज़रते बे-खौफ तेरी झलक की खातिर,
कू-ए-यार का रास्ता भरे बाज़ार में है।
          बदन भटकता है वहां दर-ब-दर बेखौफ़, 
          चस्म-ए-तलबगार रौज़न-ए-दीवार में है।
इश्क़ ले आया है ये किस मोड़ पे आखिर,
जहन सराबों के सफ़र में बे-कार में है।
         सर-ए-साहिल कहीं नज़र आता ही नहीं,
         रूह डूबती हुयी 'ताबीर' ये अफ़कार में है।
पहरे जमाने के इक राह देखती ये नजरें,
ये खुबसूरत रंग इश्क़ के किरदार में हैं।

रूह में मेरे जो ये बैचैनी उतरी रहती है,
जानें किस तलाश में भटकती रहती है।
        कभी भी कहीं टिक कर नहीं रहने देती,
        ख़ुद को ही ख़ोजने को तड़पती रहती है।
कुछ तो है जो ढूंढ रही है इतनी शिद्दत से,
रहती तो है मुझमें ही पर मचलती रहती है।
        ना ये इश्क़ है ना इस दुनियावी से बावस्ता,
        इस जहां के दूर उस पार उलझती रहती है।
काश कोई मिल जाये इसे कोई इसके जैसा,
इसी चाह में पढ़ती है कभी सुनती रहती है।
        ये कैफियत नई नहीं है इक मुद्दत हो चली है,
        मैं हैरान हूं ये किस सफ़र पे चलती रहती है। 
ना जानें कोई मंज़िल है भी या नहीं इसकी,
फकत सोचती रहती है उम्र गुज़रती रहती है।

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