कुछ सपने गर टूट जाएं
फिर वो कभी पूरे नहीं होते
ऐसा ही एक सपना है
इश्क़ के मुकम्मल होने का
वक्त मुन्तजिर रहता है
मगर एक वक्त तक
फिर अकसर उसी रफ्तार से दौड़ता है
जो वाकई फितरत है उसकी
ले आता है एक ऐसे मुकाम पर
जहां से उस टूटे सपने की किरचियां
एक ना- मुक्कमल
ला- हासिली
और अधूरेपन का दर्द समेटे चुभती रहती हैं
छुपती- छुपाती
कहीं दिल के किसी कोने में
एकांत का इंतजार करती
तन्हाई पाते ही पूरे बदन में लहू के साथ दौड़ कर
रोम रोम को उस टीस से भरने को बेताब
खूबसूरत ख़्वाब की तरह
मीठा दर्द
नायाब यादें
इश्क़ से रु ब रु होने के बरस
और ला- हासिली की टीस
बस यही खेल चलता रहता है
उम्र भर
वो एक शख़्स तमाम कायनात की खुशी को मानिंद कर देता है
महज़ एक लम्हें में
फिर एक झटके में वर्तमान में वापस आते हुए
उदास मन
ठंडी चाय
वक्त की रफ़्तार देखते हुए उठ खड़ी होती हूं
जीने के लिए अपनों के साथ हकीकत के साथ।
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’
