जीवन की इस छोटी सी यात्रा में
मैंने प्रेम को कई रूपों में जाना
बदलते हुए देखा मैंने बहुत कुछ
वक्त भी, उम्र भी, परिवार भी
लफ्ज़ भी, लहज़े भी, क़िरदार भी
रिश्ते भी, नाते भी, रिश्तेदार भी
दोस्त भी, मोहब्बत भी, ये संसार भी
प्रेम का महज़ एक शाश्वत रूप
जो स्थायी है “वो है पिता“
बिना किसी अभिव्यक्ति के भी जो
अथाह है
अपरिमित है
अपार है
नन्हें परिंदों का एक अनंत आसमां
संघर्षों की आंधियों संग
बिना किसी आवाज़ अकेला जूझता
हौसलों की दीवार
पिता कठोर होते हैं बाहर से
लेकिन भीतर से अपरंपार होते हैं
पिता वो पहाड़ होते हैं
जिनके साए में औलाद
नदियां की तरह खिलखिलाती हैं,
शीतल, सुरक्षित, मीठी, अल्हड़, मासूम !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’
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