मैं चुप कराता हूँ हर शब उमडती बारिश को, मगर ये रोज़ गई बात छेड़ देती है।
बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने, किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है।
हम से पूछो मिज़ाज बारिश का, हम जो कच्चे मकान वाले हैं।
अब के सावन में शरारत ये मिरे साथ हुई, मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई।
हो लेने दो बारिश हम भी रो लेंगे, दिल में हैं कुछ ज़ख़्म पुराने धो लेंगे।
ये बारिश कब रुकेगी कौन जाने, कहीं मैं मर न जाऊँ तिश्नगी से।
रुकी रुकी सी है बरसात ख़ुश्क है सावन, ये और बात कि मौसम यही नुमू का है।
हिज्र में यूँ बहते हैं आँसू, जैसे रिम-झिम बरसे सावन।
ख़ुश्क होने ही नहीं देती आँख वो जो सावन की झड़ी है मुझ में।
फिर सावन रुत की पवन चली तुम याद आए, फिर पत्तों की पाज़ेब बजी तुम याद आए।
फिर कूजें बोलीं घास के हरे समुंदर में, रुत आई पीले फूलों की तुम याद आए।
फिर कागा बोला घर के सूने आँगन में, फिर अमृत रस की बूँद पड़ी तुम याद आए।
पहले तो मैं चीख़ के रोया और फिर हँसने लगा, बादल गरजा बिजली चमकी तुम याद आए।
दिन भर तो मैं दुनिया के धंदों में खोया रहा, जब दीवारों से धूप ढली तुम याद आए।
इस बारिश के मौसम में अजीब सी कशिश है, ना चाहते हुए भी कोई शिदत से याद आता है।
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