फक़त मैं ग़मों का साथी हूं उसके
,
खुशियों का कर्ज़दार कोई और है।
अंधेरा खींचता है उसे मुझ तलक
,
उजालों का किरदार कोई और है।
मैं वारिस हूं
,
महज़ दर्द का ‘ताबीर’
,
जायदाद का हक़दार कोई और है।
बदन भटकता है वहां दर-ब-दर बेखौफ़
,
चस्म-ए-तलबगार रौज़न-ए-दीवार में है।
कातिल़ यादें आयी हैं मेरे हिस्से में
,
मेरे महबूब का यार कोई और है।
वो तो टकराया था
,
इश्क़ बताने को
,
शतरंज का शहरयार कोई और है।
चन्द लम्हे बा-मुश्किल मुकद्दर हुए
,
ज़िंदगी का दावेदार कोई और है।
समंदर से तो याराना रहा है बरसों
,
ये नाराज़ सी मंझधार कोई और है।
सुनो
,
रातों की नींद
,
दिन का इत्मीनान ले गया
,
अंधेरे की दुनियाँ
,
उजालों का फ़रमान ले गया।
ले गया मुझमें से वो मेरे अपने वुजूद का गुरूर
,
जो उसके काम का नहीं था, वो सामान ले गया।
जिस शख़्स को मान लिया था
,
अपनी क़ायनात
,
देख़ो
,
अपने साथ तमाम उम्र का
,
मान ले गया।
शिकस्त के रेज़े
,
गहरी चुभन रखते हैं “ताबीर”
,
निगाहों को दे के अरमान
,
वो हमारी जान ले गया।
अलावा महबूब के भला इन आंखो का क्या काम
,
यही सोच कर
,
वो शायद इन से
,
जुबान ले गया।
40+बेवफ़ा शायरी | Bewafa Shayari
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