घर की बुनियादें दीवारें बाम-ओ-दर थे बाबू जी, सब को बाँध के रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबू जी।

तीन मोहल्लों में उन जैसी क़द काठी का कोई न था, अच्छे-ख़ासे ऊँचे पूरे क़द-आवर थे बाबू जी ।

अब तो उस सूने माथे पर कोरे-पन की चादर है, अम्मा जी की सारी सज-धज सब ज़ेवर थे बाबू जी।

कभी बड़ा सा हाथ-ख़र्च थे कभी हथेली की सूजन, मेरे मन का आधा साहस आधा डर थे बाबू जी।

हमें पढ़ाओ न रिश्तों की कोई और किताब पढ़ी है बाप के चेहरे की झुर्रियाँ हम ने।

ये सोच के माँ बाप की ख़िदमत में लगा हूँ, इस पेड़ का साया मिरे बच्चों को मिलेगा।

मुझ को छाँव में रखा और ख़ुद भी वो जलता रहा मैं ने देखा इक फ़रिश्ता बाप की परछाईं में ।

उन के होने से बख़्त होते हैं, बाप घर के दरख़्त होते हैं।

घर की इस बार मुकम्मल मैं तलाशी लूँगा ग़म छुपा कर मिरे माँ बाप कहाँ रखते थे।

बीस बरस तक बाप उधड़ता है थोड़ा थोड़ा, तब सिलता है इक बेटी की शादी का जोड़ा।

अपने बच्चों से बहुत डरता हूँ मैं, बिल्कुल अपने बाप के जैसा हूँ मैं।

पिता हारकर बाज़ी हमेशा मुस्कुराया, शतरंज की उस जीत को मैं अब समझ पाया।

मुझे रख दिया छाँव में खुद जलते रहे धूप में, मैंने देखा है ऐसा एक फरिश्ता अपने पिता के रूप में।