दिल ही दिल में हम दीदार-ए-यार में हैं। चले आओ कि ये निगाहें इंतज़ार में हैं।

तलब सर पटकती है बेताब ओ बे-चैन, जैसे जिंदगी की कश्ती मझधार में है।

गुज़रते बे-खौफ तेरी झलक की खातिर, कू-ए-यार का रास्ता भरे बाज़ार में है।

बदन भटकता है वहां दर-ब-दर बेखौफ़, चस्म-ए-तलबगार रौज़न-ए-दीवार में है।

इश्क़ ले आया है ये किस मोड़ पे आखिर, जहन सराबों के सफ़र में बे-कार में है।

सर-ए-साहिल कहीं नज़र आता ही नहीं, रूह डूबती हुयी ‘ताबीर’ ये अफ़कार में है।

पहरे जमाने के इक राह देखती ये नजरें, ये खुबसूरत रंग इश्क़ के किरदार में हैं।

फिर से नहीं होगा, लाख़ करके भी इश्क़, शिकायतें रहीं तेरी, खाक करके भी इश्क़।

पहली मुलाकात भी इश्क़, बात करके भी इश्क़, गहरी रात तक इश्क़, सुबह तड़के भी इश्क़।

रूह तर रही तमाम उम्र मोहब्बत से उसकी, मौत से पहले भी इश्क़, फक़त मरके भी इश्क़।

ख़ुदा के लिखे का भी जबाब नहीं है ताबीर, बाद इश्क़ के, जुदाई को फिर नसीब बनाये है।

मैं उसको हसरतों से देखूँ वो निगाह फेर ले, सफ़र इ इश्क़ में फकत यही एक मंजर रहा ।

शिकायतें कहीं बहुत पीछे रह गयी, हैरां हुं, दर्द से ही इश्क़ हो चला है।