कच्ची दीवारों को पानी की लहर काट गई, पहली बारिश ही ने बरसात की ढाया है मुझे। 

फ़ुर्क़त-ए-यार में इंसान हूँ मैं या कि सहाब, हर बरस आ के रुला जाती है बरसात मुझे।

गुनगुनाती हुई आती हैं फ़लक से बूँदें, कोई बदली तिरी पाज़ेब से टकराई है।

भीगी मिट्टी की महक प्यास बढ़ा देती है, दर्द बरसात की बूँदों में बसा करता है।

दफ़्तर से मिल नहीं रही छुट्टी वर्ना मैं, बारिश की एक बूँद न बे-कार जाने दूँ। 

ओस से प्यास कहाँ बुझती है, मूसला-धार बरस मेरी जान।

कच्चे मकान जितने थे बारिश में बह गए, वर्ना जो मेरा दुख था वो दुख उम्र भर का था। 

साथ बारिश में लिए फिरते हो उस को 'अंजुम', तुम ने इस शहर में क्या आग लगानी है कोई।

बरसात के आते ही तौबा न रही बाक़ी, बादल जो नज़र आए बदली मेरी नीयत भी। 

दूर तक छाए थे बादल और कहीं साया न था, इस तरह बरसात का मौसम कभी आया न था। 

टूट पड़ती थीं घटाएँ जिन की आँखें देख कर, वो भरी बरसात में तरसे हैं पानी के लिए।

धूप ने गुज़ारिश की, एक बूँद बारिश की। 

अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है, जाग उठती हैं अजब ख़्वाहिशें अंगड़ाई की। 

मैं वो सहरा जिसे पानी की हवस ले डूबी, तू वो बादल जो कभी टूट के बरसा ही नहीं।

हम तो बारिश में खुली छत पर न सोएँगे 'नज़ीर', आप तन्हा अपने सर लीजे बला बरसात की। 

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