इतना न अपने जामे से बाहर निकल के चल, दुनिया है चल-चलाव का रस्ता सँभल के चल

तू कहीं हो दिल-ए-दीवाना वहाँ पहुँचेगा, शम्अ होगी जहाँ परवाना वहाँ पहुँचेगा।

ख़ुदा के वास्ते ज़ाहिद उठा पर्दा न काबे का, कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफ़िर-सनम निकले।

बुलबुल को बाग़बाँ से न सय्याद से गिला, क़िस्मत में क़ैद लिक्खी थी फ़स्ल-ए-बहार में।

लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में, किस की बनी है आलम-ए-ना-पाएदार में

बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी, जैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी

कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए, दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में।