गाहे गाहे की मुलाक़ात ही अच्छी है 'अमीर', क़द्र खो देता है हर रोज़ का आना जाना।

तीर खाने की हवस है तो जिगर पैदा कर, सरफ़रोशी की तमन्ना है तो सर पैदा कर।

कश्तियाँ सब की किनारे पे पहुँच जाती हैं, नाख़ुदा जिन का नहीं उन का ख़ुदा होता है।

आफ़त तो है वो नाज़ भी अंदाज़ भी लेकिन, मरता हूँ मैं जिस पर वो अदा और ही कुछ है।

ख़ंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम 'अमीर', सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है।

कौन सी जा है जहाँ जल्वा-ए-माशूक़ नहीं, शौक़-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर।

हँस के फ़रमाते हैं वो देख के हालत मेरी, क्यूँ तुम आसान समझते थे मोहब्बत मेरी।

हुए नामवर बे-निशाँ कैसे कैसे, ज़मीं खा गई आसमाँ कैसे कैसे