
समन्दर पी कर भी प्रेम का
कुछ पुरूष रह जाते हैं
मरुस्थल
बंजर के बंजर
नहीं फूटती उनमें कोंपलें
वो रह जाते हैं जीर्ण बीज
देह की असंख्य आकांक्षाएँ
रखती हैं उनके पौरूष को
स्त्री के प्रेम के अल्हड़पन से वंचित
चुलबुलाहट से अनछुआ
नेत्रों के आलिंगन से अनभिज्ञ
किसी सूख चुके गमले से कठोर
किसी कट चुके पेड़ से ठूंठ
प्रेम उगता रहता है
दूब की भांति इर्द गिर्द
कोमल स्पर्श से भरपूर !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

कभी कभी
मैं पुरूष हो जाना चाहती हूँ
देखना चाहती हूँ
तुम्हारे अंदर का बचपन
तुम्हारे भीतर का किशोर
तुम्हारी उम्र का हर दौर
तुम्हारा ह्रदय
तुम्हारा प्रेम
तुम्हारी रचनाएं
तुम्हारी नज़र
और उस नज़र से अपने आपको
पुरूष की संवेदनशीलता को
कठोर कहे जाने पर
तुम्हारे ह्रदय की संवेदना
मैं देखना चाहती हूँ
कैसे इस कठोरपन के साथ
तुम निभाते होंगें
एक बेटे, भाई, पति, पिता
जैसे संवेदनशील रिश्तों के
कठोर दायित्व भी
तुम कैसे एक प्रेमी होते होंगें
प्रेम तो संवेदना का विषय है
तुम भी तो कभी कभी
ह्रदय से पूर्ण स्त्री
होना चाहते होंगें यकीनन
ये देह दोनों तत्वों का मेल है !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’
अंतरर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 💐💐