शायद परिंदो की फितरत से आए थे वो मेरे दिल में, ज़रा से पंख क्या निकले आशियाना ही बदल लिया।

तुम किसी के भी हो नहीं सकते, तुम को अपना बना के देख लिया।

ये जफ़ाओं की सज़ा है कि तमाशाई है तू, ये वफ़ाओं की सज़ा है कि पए-दार हूँ मैं।

उमीद उन से वफ़ा की तो ख़ैर क्या कीजे, जफ़ा भी करते नहीं वो कभी जफ़ा की तरह।

गिला लिखूँ मैं अगर तेरी बेवफ़ाई का, लहू में ग़र्क़ सफ़ीना हो आश्नाई का।

काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएँ तो क्या करें, उस बेवफ़ा को भूल न जाएँ तो क्या करें।

वही तो मरकज़ी किरदार है कहानी का, उसी पे ख़त्म है तासीर बेवफ़ाई की।

ये क्या कि तुम ने जफ़ा से भी हाथ खींच लिया, मिरी वफ़ाओं का कुछ तो सिला दिया होता।

क़ायम है अब भी मेरी वफ़ाओं का सिलसिला, इक सिलसिला है उन की जफ़ाओं का सिलसिला।

तुम जफ़ा पर भी तो नहीं क़ायम, हम वफ़ा उम्र भर करें क्यूँ-कर।

जो मिला उस ने बेवफ़ाई की, कुछ अजब रंग है ज़माने का।

ऐसे कैसे बुरा कह दूँ तेरी बेवफाई को, यही तो है जिसने मुझे मशहूर किया है।

चोट है, ज़ख्म़ हैं, तोहमत है, बेवफाई है, बचपन के बाद इम्तहान कड़ा होता है।