सरे-आम मुझे ये शिकायत है जिंदगी से, क्यों मिलता नहीं मिज़ाज़ मेरा किसी से।

थक गया हूं तेरी नौकरी से ऐ जिंदगी, मुनासिब होगा मेरा हिसाब कर दे।

गैरों से पूछती है तरीक़ा निज़ात का, अपनों की साज़िशों से परेशान ज़िंदगी।

कटती है आरज़ू के सहारे पर ज़िंदगी, कैसे कहूं किसी की तमन्ना ना चाहिए।

हजारों उलझने राहों में और कोशिशें बे-हिसाब, इसी का नाम है जिंदगी चलती रहिये जनाब।

कितनी सच्चाई से मुझसे ज़िंदगी ने कह दिया, तू नहीं मेरा तो कोई दूसरा हो जाएगा।

कुछ इस तरह से गुजरी है जिंदगी जैसे, तमाम उमर किसी दूसरे के घर में रहा।

तूने ही लगा दिया इल्जाम ए बेवफाई, अदालत भी तेरी थी गवाह भी तू ही थी।

जो लोग मौत को ज़ालिम करार देते हैं, खुदा मिलायें उन्ही जिंदगी के मारों से।

ये माना जिंदगी है चार दिन की, बहुत होते हैं यारों चार दिन भी।

क्या बेच कर हम ख़रीदें फुर्सत ऐ जिंदगी, सब कुछ तो गिरवी पड़ा है जिम्मेदारी के बाजार में।

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