हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं हम से ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं।

क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है, हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है।

यूँ ज़िंदगी गुज़ार रहा हूँ तिरे बग़ैर, जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूँ मैं

दिल में किसी के राह किए जा रहा हूँ मैं, कितना हसीं गुनाह किए जा रहा हूँ मैं।

इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है, सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है।

जो तूफ़ानों में पलते जा रहे हैं, वही दुनिया बदलते जा रहे हैं।

अपना ज़माना आप बनाते हैं अहल-ए-दिल, हम वो नहीं कि जिन को ज़माना बना गया

इतने हिजाबों पर तो ये आलम है हुस्न का, क्या हाल हो जो देख लें पर्दा उठा के हम