सहराओ की तड़प पर
दरिया प्यास हो जाते हैं
धरती की बैचैनी पे
आसमां निराश हो जाते हैं
ये हुनर हमनशीनी का
बाक़ी रहा है फ़क़त क़ुदरत में
कि देखकर दुःख एक दूसरे का
सब हस्सास हो जाते हैं
लोग तो बन चुके हैं
जेहनी मरीज़ इस जहां में
ये औक़ात आँक कर
दूर और पास हो जाते हैं
भूल चुके हैं कि ख़ुदा
सुन सकता है ख़यालात भी
जो अज़िय्यत देते हैं किसी को
वो ख़ुद ही नाश हो जाते हैं
तेरी सोचें भी उसकी नज़र में हैं
हर इक लम्हा हर इक पहर
जो रुह रूहानी हों
वो ख़ुदा के ख़ास हो जाते हैं
उठाते हैं हाथ जो बस
दुआओं को अपने लिए
वो ज़िंदा नज़र तो आते हैं
मगर लाश हो जाते हैं
बड़ा मुश्किल है यहां
इंसानों में इंसान को ढूँढ़ना
बदलते- बदलते ये नक़ाब
बद-हवास हो जाते हैं
मेरे तो दोस्त भी मेरे दुश्मनों से
बद्तर निकले हैं ‘मृणाल’
मुझे मंज़िल के क़रीब देखते ही
उदास हो जाते हैं !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’