कविताएं : अंतर यात्रा | एकांतता | मौन | प्रार्थना | ध्यान

अपनी तलाश की राहें
अपनों की तलाश की
असफलता से हो कर गुजरती हैं
जो जाना चाहे उसे जानें देना
सहजता से स्वीकार करना
कृतज्ञता व्यक्त करना
अहोभाव से अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ना !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

एकांत

एकांत में अपने साथ…
यदि तुम खुश होना सीख लो
तो एक अनछुआ, नवीन आनंद
तुमसे झरेगा !!
यदि तुम्हारी खुशी
किसी बाहरी वस्तु, व्यक्ति और स्तिथि पर निर्भर है
तो जान लेना तुम ख़ुशी के भ्रम में हो
ये सुख अस्थाई है अपने पीछे दुःख लाता है
अपना आनंद तलाशो जो अविरत है !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

टूटी

टूटी चप्पल, टूटी झोपड़ी, फटे कपड़े या टूटा दिल,
हर शख़्स यहां, अपने कर्मों की सजा काट रहा है।
वही आ रहा है लौट कर, जो दिया है तुने जहां को,
कोई उड़ रहा है आसमां में, कोई जमीं चाट रहा है।
जरा गौर फरमाना कभी, अपने कार्मिक खातों पर,
जिसने जो बोया था कभी, फ़क़त वही काट रहा है।
बे-अक्ली की इससे बड़ी मिसाल और कोई भी नहीं,
काटते काटते भी सजा, दोष दूसरों को बांट रहा है।
आत्म-चिंतन, पश्चाताप, और मुआफी, यही इलाज़ है
जन्म- मरण के चक्कर तो इंसान युगों से काट रहा है।
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

जीवन

वह जीवन धीरे- धीरे मृत हो जाता है
जो यात्राओं से विमुख हो
संगीत से विहीन हो
प्रेम से अनभिज्ञ हो
पढे नहीं
एकांत को ना जिए
और जिसमें स्वयं को जानने की
जिज्ञासा ना जागे !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

मन

संपूर्ण ब्रह्मांड
तुम्हारी यात्रा को संघर्ष से गुजरता है
तुम्हारे चक्षु खोलता
तुम्हारे सहयोग में तत्पर पुकारता रहता है
अपनी क्षणभंगुरी प्रवृत्ति को चरितार्थ करता
पल- पल तुम्हें इस गहरी नींद से जगाने की चेष्टा करता है
तुम किसी बहती नदी में बहे जा रहे
सूखे पत्ते की भांति संघर्ष करते
ठहरो, देखो, बांध लगाओ, दिशा चुनो
ऊर्जा को संग्रहित कर
उल्टी दिशा में निर्णायक भूमिका निभाते हुए
कभी कभी अन्तर्मन का चक्कर लगाओ
टहलो उस चितवन में जो चेतना के पार बसा है
बन्द आंखों से दिव्यमान है
आलौकिक है,
आध्यात्मिक है,
अद्वितीय है,
नवीन सुगन्धों का पता लगाओ
ध्वनित तरंगों को महसूस करो
और कुछ ही दिनों में तुम पाओगे
कोंपले फूटने लगी हैं
तुम्हारे निर्वाण की
फिर जगत तुमसे छूटने लगता है र्निविरोध
तुम जगत को खेल के रूप में देख पाने में समर्थ हो जाते हो
जहां अनछुए रह जाते हैं सब, सुख भी दुःख भी !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

रूह

ऐसे मिलोगे अपनी
रूह से,
जैसे दो बिछड़े हुए प्रेमी,
उतारना बदन तुम
अपना,
लिबास की तरह कभी !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

आखिरी मंजिल

ज़िन्दगी की आख़िरी मंज़िल…
प्रेम के मनोहर, लुभावने
रहगुज़र से शुरू हो
वियोग के दोज़ख से होते हुए
पीड़ा के ऊबड़खाबड़ मोड़ों को पार कर
पहुँच पाती है मुक्ति के समीप
इन्हीं बंजर रास्तों पर
अक्सर पड़ाव लेते हुए
मैं शब्दों के बीज़
इश्क़ के खेतों पर बिखेरती जाती हूँ
जहाँ-तहाँ बे-तरतीब
बिना बंदिशों और पगडंडियों के
एक नौसिखिए कृषक की तरह
जिनसे अक्सर उग आतीं हैं
कुछ ख़ूबसूरत नज़्म
चन्द अशआर
एक- दो कविताएं
और कभी कभार
गज़ल की फ़सल
प्रेम की मिट्टी की ऊर्वरकता से
जीर्ण बीजों में भी
फूट आती हैं जब-तब
ध्यान की कोपलें
इनकी सुगन्ध
और इनका सानिध्य
एहसासों की देह के छिले ज़ख्मों पर
औषधि सा काम करती
मन पर पड़े छालों की वेदना
पर मरहम लगाती
आनंद की छींटों से
परमानंद की झलक देती
पुख़्ता करती जाती है
मेरी आत्मा की पात्रता
उस परमतत्व के लिए
प्रेम के बग़ैर
मोक्ष असंभव है !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

मौन

मैंने मौन के निर्मल झरनों को पिया है
उनमें शून्य की चन्द बूँद को चखा है
कभी एकान्तता के क्षणों में, कभी आत्मिक प्रणों में
कभी वृक्षों की सानिध्य में, कभी पहाड़ों के मुख पर
कभी समंदर के धरातल में, कभी आकाश के आँचल में
कभी नदियों की कल-कल में, कभी तारों की हलचल में
कभी धरती के ह्रदय में, कभी चंद्रमा की भाव-भंगिमा में
कभी बादलों की अंगड़ाई में, कभी रात की तन्हाई में
कभी झीलों की आँखों में, कभी हवाओं की साँसों में
कभी शाम की आहों में, कभी पुष्पों की बाहों में
कभी तितलियों की ताल में, कभी पक्षियों की चाल में
कभी दिन के अंधेरों में
और कभी कभी मासूम सवेरों में भी
मैंने मौन की मस्ती को नृत्य करते देखा है
ना जाने कितनी बार, ना जाने कितने पहर
मैं साक्षी हूँ और आश्वस्त भी
इनमें मौजूद है प्रेम की मदहोशी के भी पार का चरमोत्कर्ष
ये सभी शून्य की राह पहचानते हैं
इनकी आँखों में संपूर्णता की लहरें ठहरी हैं
इनमें आध्यामिक सम्राट सा आन्तरिक आनंद विराजित है
कभी-कभी किसी मंगल घड़ी में
जब मेरे नयन इनके नयनों से अंगीकार होते हैं
ये मेरे नेत्रों के रिक्त कटोरों में देख लेते हैं
उस विराट की आकांक्षा से लबालब भरा हुआ
“भिक्षु-पात्र”

इनका अस्तित्व पढ़ लेता है
मेरे कोरे चेहरे से आविर्भूत
वैराग्य की स्याही
और उनके द्वारा उकेरे गए कुछ आड़े-तिरछे
“प्रार्थना-पत्र”…
लोग जीवन से ऊब कर
मृत्यु का आलिंगन करते हैं
मगर इन्हें मालूम है मेरे बारे में
मुझे मौत की सुकून भरी बाहों में भी चैन नहीं आएगा
शरीर के त्याग के उपरान्त की शान्ति मुझे आकर्षित नहीं करती
मेरी पीड़ा की औषधि
जन्म और मृत्यु, दोनों के उस पार है
मेरी आत्मा की प्यास को मोक्ष का अमृत लगेगा
इससे कम पर ये राज़ी नहीं
शायद यही वजह है कि
ये मुझे जीवन से ऊबने नहीं देते
खींच कर ले जाते हैं
पुनः-पुनः अपनी ओर
मेरे मन के संदेह, निराशा को अवशोषित करके
मेरी अभिलाषा को हर बार नवीन बल प्रदान करते
दोनों हाथों से आशीष की वर्षा लुटाते
जैसे मौन में ही कह रहे हों…
‘मृणाल’ तथास्तु !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

सूरज का तुम्हारे जीवन से जाना

सूरज का तुम्हारे जीवन से जाना
चांद के आगमन का संदेश है
सूरज उदय हो तब भी प्रणाम करना
सूरज ढले तब भी कृतज्ञता में रहना
दिन और रात
सुख और दुःख जैसे हैं
जीवन के दो पहलू
ये सूरज का ढलना
ये खूबसूरत उतरती हुई शाम
चांद का सितारों के साथ चले आना
रात का अंधेरा तुम्हें भले दुख प्रतीत हो
लेकिन ये चांद की शीतल चांदनी में
तुम्हें खुद के अस्तित्व की पहचान करता है
आत्म अवलोकन का अवसर होता है
और सितारों की चमक कुछ और नहीं
तुम्हारे ज़िंदगी से सीखे गए हुनर हैं
जो बस अंधेरों से चमक उठते हैं
अंधेरा रोशनी के आगमन का संदेश भी तो है

कैसे भूल जाते हो
हर रात के बाद सूरज का उदय होना
उतना ही परम सत्य है
जितना दुखों के बाद सुखों का
तुम्हारी ज़िंदगी में लौट आना
जिस दिन तुमने दुःख के पीछे भागते हुए
आ रहे सुखों को देखना शुरू किया
तुम अंधेरों को सहयोगी मान लोगे
फिर तुम्हें दुःख उतनी पीड़ा ना दे सकेगें
तुम में स्थिरता बनी रहेगी
चांद की चांदनी, तारे, सितारे
और अमावस की स्याह रातें
तुम में सुकून और शांति उतारेंगें
तुम हर सुख और दुःख में
आनंदित रह पाओगे
जीवन में सूरज उदय हो तो विन्रम रहना
अंधेरा उतरे तो शान्त होकर
प्रकृति को सहयोग करना
अंतर यात्रा करना !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

तुम जो भी काट रहे हो

तुम जो भी काट रहे हो
वो चाहे फूल हो या काटें
वो तुम्हारा ही चुनाव है
ये प्रकृति निष्पक्ष है
प्रकृति तुम में जरा भी उत्सुक नहीं
तुम्हारी चाह, तुम्हारी प्रार्थनाएं
और तुम्हारी ऊर्जा है
जो तुम्हें उन वृक्षों के नीच ले जाती है
जहां फूल तुम पर बरस जाएं
तुम ही हो वो जो उन रास्तों पर
निकल पड़ते हो जहां काटें हों
तुम्हारी यात्रा तुम्हारा स्वतंत्र चुनाव है
ये तुम्हारी प्रार्थनाएं हैं
तुम्हारी ख़ोज है
तुम्हारी उत्सुकता है

जिस चीज़ की ख़ोज तुम्हारे भीतर उठती है
तुम वही पाओगे बाहर के जगत में पाओगे
ये प्रकृति सहयोगी मात्र है
बीज बबूल का हो या आम का
हवा, पानी, अग्नि, धरती, आकाश
पंच महाभूतों से सहयोग पाकर
वो वृक्ष बीज के अनुसार फल देगा
कभी ऐसा ना हो पाएगा
कि बीज बबूल का हो और आम का फल दे जाए
ये असंभव है
फिर तुम्हारी कोई कोशिश कोई प्रार्थना काम ना आयेगी
रोज़ मंदिरों के, मस्जिदों के, गुरुद्वारों के आगे माथा रगड़ना
कि बीज बबूल बो दिए हैं फल आम का दे दे
बीज वही फल देगा जो उसका स्वभाव है
बीज का चुनाव
पूर्णतया तुम्हारा चुनाव है
इसलिए बीज होशपूर्ण होकर चुनना

प्रेम चुनना
मोक्ष चुनना
संतुष्टि चुनना
भक्ति, ज्ञान या जो भी तुम चाहो
कई गुना होकर ये प्रकृति बीज से फल बनाकर वापस कर देगी
भूल से भी ऐसा बीज ना चुन लेना
जो ले जाए गहरे अंधकारों में तुम्हें
फिर तुम ईश्वर से कितनी ही शिकायत करना
दूसरों को दोष देना कुछ ना हो पाएगा
वही लौटेगा जो बो दिया था तुमने
तुम चुनो जो चाहते हो
हर पल तुम चुनने को स्वतंत्र हो
आज अभी इसी वक्त
यहां सब मौजूद है पहले से
बस तुम्हें खोजना है !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

रूह में मेरे जो ये बैचैनी उतरी रहती है

रूह में मेरे जो ये बैचैनी उतरी रहती है,
जानें किस तलाश में भटकती रहती है।
कभी भी कहीं टिक कर नहीं रहने देती,
ख़ुद को ही ख़ोजने को तड़पती रहती है।
कुछ तो है जो ढूंढ रही है इतनी शिद्दत से,
रहती तो है मुझमें ही पर मचलती रहती है।
ना ये इश्क़ है ना इस दुनियावी से बावस्ता,
इस जहां के दूर उस पार उलझती रहती है।
काश कोई मिल जाये इसे कोई इसके जैसा,
इसी चाह में पढ़ती है कभी सुनती रहती है।
ये क़ैफ़ियत नई नहीं है इक मुद्दत हो चली है,
मैं हैरान हूं ये किस सफ़र पे चलती रहती है।
ना जानें कोई मंज़िल है भी या नहीं है इसकी,
‘मृणाल’ सोचती रहती है उम्र गुज़रती रहती है !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

शिद्दत- तीव्रता
बावस्ता- सम्बन्धित
दुनियावी- सांसारिक
क़ैफ़ियत – हाल
मुद्दत- दीर्घ काल, अवधि

अंतर आत्मा

तू भूल गया क्या पाने आया
तू भूल गया क्या करने आया
सांसों की घटती माला देख भी
तू भूल सत्य पल पल इतराया
कैसी ये मानव मन की व्यथा
क्यों इसने ना अलख जगाया
उलझे कभी मोह के धागों में
कभी माया का रोग लगाया
दो दिन का मेहमान है लेकिन
बरसों का सामान सजाया
यह मेरा यह तेरा करते
उम्र को यूं ही व्यर्थ गँवाया
जिसे मिली है दौलत जग में
उसने सुकूँ को हाथ फैलाया
जिसे मिल गया पद या वैभव
उसने डर को भी गले लगाया

जिसे मिला विवाहित जीवन
वो लड्डू कह कर पछताया
जिसके हिस्से में ये नहीं आया
वो देख देख इसको ललचाया
दर दर भटका मंदिर मस्जिद
जिसने औलाद का सुख ना पाया
चार बेटों के संग भी था जो
उसे भी सबने मिलकर रुलाया
रो रहा है संसार ही सारा
किसी ने भी यहां सुख नहीं पाया
दुःख देख कर भी एक दूजे का
सुख की ख़ोज में निकल ना पाया
चिंता ले गई खींच चिता तक
फिर भी जकड़े जग की माया
अंतिम क्षण भी घेरे आसक्ति
फिर भी इसको होश ना आया
सुख केवल उसने ही पाया
जिसने अंदर का दिया जलाया
ध्यान किया और भीतर डूबा
आत्मज्ञान को जिसने पाया !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

selfdiscovery

हमारी स्वयं से
परिचितता का स्तर…
हमारी दृष्टि की सीमा
निर्धारित करता है !!
यदि हम ख़ुद को
शारीरिक स्तर तक ही जानते हैं
हमारी दृष्टि सामने वाले को
शरीर के स्तर तक ही देख पाने में सक्षम है
यदि हम अपने मन से भी परिचित हैं
तो हमारी दृष्टि किसी भी जीव के
मन के स्तर तक जाकर
उसे जान और देख सकती है
यदि हम अपनी आत्मा को भी जानते हैं
उससे भी भली भांति परिचित हैं
तो हमारी दृष्टि असीमित हो उठती है
फिर कोई भेद नहीं रहता
कुछ जानने को शेष नहीं रहता
सम्पूर्ण जगत एक नज़र आता है
इसी को हमारे महा उपनिषद में
वसुधैव कुटुंबकम कहा !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

परमात्मा

फिर यूं भी हुआ था कि
कोई दलील
कोई मिन्नत
कोई हथकंडा काम ना आया उसका
हर लफ़्ज़ बेअसर हो गया, बे-मानी हो गया
मानो पत्थर हो गया था, कहीं कुछ मेरे अन्दर
जिसके इशारे भी समझती थी
उसके अल्फाज़ अनसुने हो गए
जिसके आहट से धड़कनें बढ़ती थीं
उसकी दस्तकें गूंगी हो गईं
नहीं सुन पाती थी, अब मैं उसकी सदाएं
बहरा हो गया था, मेरे जिस्म का एक हिस्सा
वजह कुछ भी हो लेकिन
किसी के साथ होकर
अकेले महसूस होने से
बहुत बेहतर है
उसके बिना, अकेले हो जाना है
किसी ख़ास पल में
यही अकेलापन तुम्हें ले जायेगा
अन्तर्मन से होते हुए
एकांत की यात्रा पर
जहां तुम र्निविरोध उतर जाओगे
निस्वार्थ गहरे प्रेम के धरातल पर
साक्षी बनोगे, अपनी निर्मल आत्मा के
पा जाओगे, उस सूक्ष्म की झलक
हो जाओगे, मोह के बन्धन से मुक्त
प्रेम में से मोह हट जाए
तो वो कुंदन हो जाता है
शायद किसी ने ठीक ही कहा है
मात्र दो ही रास्ते हैं
उस परमात्मा तक जानें के
पहला प्रेम
दूसरा ध्यान !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

ध्यान meditation

जिस चीज़ को तुम
अपने जीवन में नहीं चाहते हो
उस पर ध्यान कभी मत देना
तुम्हारा ध्यान ही तुम्हारा बल है
तुम्हारा बल देना ही ऊर्जा देना
जिस को तुम बल दोगे
उसे तुम ऊर्जा दे रहे हो
जिसे तुम उर्जा दे रहे हो
वो सजीव हो उठेगा
अपने वक्त के आयाम पर…
तुम चाहो तो अभी आजमा लो
अपने मन और विचारों का ध्यान ले जाओ
किसी सुखद अहसास, घटना या अनुभव पर
और तुम पाओगे अनायास तुम्हारे होंठ मुस्कुरा उठे
तुम्हारा ह्रदय प्रफुल्लित हो उठा
तुम्हारे शरीर में सुखद रोमांचक तरंगें बहने लगीं…

अगले ही पल तुम ध्यान दो किसी अप्रिय घटना पर
तुम पाओगे सब कुछ बदल गया
तुम्हारे भीतर- बाहर
मुस्कुराते होंठ एक दम से सिकुड़ गए
माथे पर शिकन पड़ गई
जो सुखद तरंगें थीं
वो रूपांतरित होकर दुखद हो उठीं
करके देखो दिन में कई- कई बार
और अनुभव से जानना…
ऐसे ही हम जीवन में जिस भी
सजीव या निर्जिव तत्व पर ध्यान केन्द्रित करते हैं
वो बलवती होती जाती है
यही आकर्षण का नियम भी कहता है
कि “विचार वस्तु बन जाते हैं”
इसलिए उस पर ध्यान देना
जो अपने जीवन में घटता देखना चाहते हो…
प्रकृति के ख़ज़ाने से कुछ भी
चुनने के लिए तुम स्वतंत्र हो…
पीड़ा या आनंद
शाश्वत या नश्वर
भौतिक या आध्यात्मिक
चुनाव तुम्हारा है !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

इंसान

इंसान समन्दर पा कर भी उम्र भर प्यासा रहता है,
मन पांचों इन्द्रियां गुलाम करके राजा सा रहता है।
विकार उठतें हैं और कर देते हैं व्याकुल देह को,
मन अकसर यूं ही बुद्धि-विवेक पर हावी रहता है।
अनुभूती से जानो जरा शरीर के तल की संवेदनाएं,
मन जंगली है स्वभाव से खुद को पालतू बताता है।
जुबां नहीं मन की लेकिन ऊर्जा भी है ताकत भी है,
देता इशारे मन से और अपने मन की करवाता है।
ना फसना इसकी चाल में, सब खेल इसी मन का,
समता में ना रहने दे, पुराने संस्कारों से चलाता है।

ये मनचाही में उड़ायेगा और अनचाही में रुला देगा,
किसी कठपुतली की तरह ये सबको नाच नचाता है।
रखो आस्था ईश्वर में, खुद पर भी रखो विश्वास जरा,
उसकी कृपा से अंगुलिमाल, वाल्मिकी बन जाता है।
भीतर की आँखें खोलो और ध्यान लगाओ सांसों पर,
राग-द्वेष हैं मन के उपद्रव, देखते- देखते भटकाता है।
बाहर नहीं है दुःख कहीं, ना सुख है कहीं संसार में,
मन को जानो भीतर जाकर, भव सागर तर जाता है !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

प्रार्थना माध्यम है
अपनी बात ईश्वर से कहने का..
ध्यान माध्यम है
ईश्वर की बात सुनने का !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

चांद को कभी सूरज के प्रकाश से जलते देखा तुमने
कभी कोई गिला करते या कभी कोई टिप्पणी करते
तुम्हारे पास ज्यादा रोशनी है मेरे पास कम है
तुम्हारे पास प्रकाश है मेरे पास उतना नहीं है
या सूरज कहे कि तुम हसीन ज्यादा हो शीतल हो
या काश मेरे पास भी रात होती
फूल कहे कि मैं अपनी सुगंध से संतुष्ट नहीं
समंदर कहे मुझे नदी सा मीठा होना है
पहाड़ कहे मैं पत्थर क्यों हूं
परिंदें कहे हमें जमीन चाहिए
प्रकृति की हर चीज अपने आप से खुश और संतुष्ट है
वो ना तुलना करती है ना उपेक्षा
ना इच्छा ना आकांक्षा
बस जीवन को प्रोत्साहित करती है
जीवन बांटती है
क्योंकि अपने मूल स्वभाव में रह पाती है
बांटना प्रकृति का सौन्दर्य है
और हम वही बांट सकते हैं जो हमारे पास उपलब्ध है
प्रकृति की प्रत्येक रचना के मूल में
एक सुवास है एक दुर्लभ सुगंध है
व्यक्ति प्रकृति की सर्वोत्तम, विशेष रचना में से एक है
ये सुवास व्यक्ति में भी होती है तब तक
जब तक वो अपने मूल तत्त्व को जीवित रखता है
स्वाभाविक रहता है प्राकृतिक रहता है

दुर्गन्ध अप्राकृतिक होने में है
पीड़ाएं अस्वभाविक होने में है
जब इच्छाएं, आकांक्षाएं मन को पकड़ती हैं
व्यक्ति उन्हें पूरा करने के लिए छल कपट
ईर्ष्या क्रोध लोभ मोह अहंकार वासना में लिप्त होता जाता है
उसकी प्राकृतिक सुगंध विलुप्त होती जाती है
उसके पास बांटने के लिए भी यही उपलब्ध बचता है
विचार कीजिए
अभी इस वक्त आपके पास क्या है
जो आप जाने अंजाने अपने आस पास बांट रहे हैं…
मन को निर्मल रखने के लिए
इन सब बंधनों से छूटने की चेष्टा करनी चाहिए
एकांत को गले लगाइए
प्रकृति के साथ वक्त बिताइए

अपने मन और विचारों को विश्राम दीजिए
वो मूल स्वभाव, सुवास खोजिए
जो पैदा होने के वक्त से 7 वर्ष तक आपके पास थी
मुस्कुराहट, उदारता, प्रेम, सम्मान, समर्पण, ईमानदारी, दया
जैसे जैसे आप मूल स्वभाव की तरफ लौटते हैं
आत्मा के करीब होते जाते हैं
आपकी सुवास लौटने लगती है
दुःख, चिंतायें मिटने लगती हैं
अतंत् प्रकृति आपको अंगीकार करती लेती है
आप प्रकृति की अद्भुत शक्ति
और असीम ऊर्जा को महसूस करने लगते हैं
आनंद और शांति आपसे छलकने लगती है !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

आज़ आधी रात में
हवाओं की थपकियाँ
जब दरख़्तों को लोरियां
सुना रही थी
मैं बैठी थी छज्जे पे
चाय के साथ
तो देखा एक रूह
उधर से जा रही थी
मैंने रोका और पूछा
क्या ढूंढ़ती हो तुम
वो कुटिलता से बोली
मुस्कुराते हुए
खौफ़जदा देखा है मैंने
इंसानों को ख़ुद से
तु क्यों मुझको
करीब बुला रही है
यूँ ही देखा तुम्हें
तो बस पूछ लिया मैंने
क्या है कहानी तुम्हारी
ज़रा बताओ मुझे

वो बैठी मेरे पास
और कहने लगी
दर्द थे ज़िंदगी में
मगर मुझमें हौंसला ना था
शायद किसी संघर्ष से
बहुत डर गई थी मैं
ज़िन्दगी थी तो कभी भी
ये एहसास ना हुआ
बदन छोड़ना वक्त से पहले
अभिशाप हुआ
इस देह के हाथों
मेरा आत्मघात हुआ है
बस उसी का सिला
निभा रही हूँ अब
दर्द पहले से कहीं ज्यादा कसाई है
अंधेरा ही अंधेरा और तन्हाई है
ना अब मैं किसी से
कुछ कह सकती हूँ
ना ही अब मुझे
कोई सुनने वाला ही है
यूँ ही ढूंढती हूँ
रात भर अँधेरों में
कोई दिया मिले तो तर जाऊं मैं
कोई रस्ता मिले और घर जाऊं मैं !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

जो लोग ईश्वर को बाहर खोजते हैं
वो लोग असल में दया के पात्र हैं
ईश्वर की ख़ोज प्रत्येक व्यक्ति
अपने जीवन में अवश्य करता है
कोई उसे धर्म में खोजता है
कोई उसे मूर्तियों में खोजता है
निरन्तर ये ख़ोज चलती रहती है
जन्म से मृत्यु तक
परन्तु बाहर की तरफ़
भीतर की कोई ख़बर नहीं
व्यक्ति संपदा इक्कठा करने में दौड़ता जाता है
मगर अन्दर की पीड़ा नहीं मिटती
दुःख बढ़ता जाता है
चिंताएं दीमक की भांति रोज़ रोज़
चेतना को कमज़ोर करती जाती हैं
बाहरी संपत्ति से सुख की
सुकून की ख़ोज में
आंतरिक संपत्ति अस्त-व्यस्त हो जाती है
भीतर का जीवन रोज़ खंड-खंड होता जाता है
पहले से ज्यादा आराजक होता जाता है
व्यक्ति ख़ुद को बेच कर दुनियां ख़रीद लेना चाहता है
परिणाम स्वरूप पहले से ज्यादा दरिद्र होता जाता है

भीतर की गरीबी को बाहर की
संपत्ति से नहीं मिटाया जा सकता
संपत्ति का अर्थ ही है जो विप्पति में काम आये
मौत से बड़ी विप्पत्ति कोई दूसरी नहीं
जो संचय मौत में काम ना आये
वो व्यर्थ है
यहां कुछ भी इकट्ठा करना
धर्मशाला में सामान जमाने जैसा है
ये देह एक मकान है
जिसके मालिक भी हम नहीं
मकान में रहने वाला रोज़ मरता जाता है
जो ख़ोज व्यक्ति को भीतर की ओर नहीं ले जाती
वो निरर्थक है
अपनी दृष्टि को बाहर से हटाकर कर
आंतरिक मोड़ देना ही असल ख़ोज है
एक प्रकाश है जो भीतर जलता है
हवायें हैं जो भीतर चलती हैं
नदियां हैं जो भीतर बहती है
ईश्वर है जो भीतर रहता है
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

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